मैं भगोड़ा बनकर आपके पास नहीं आया हूँ , वैरागी बनकर आया हूँ । स्वाध्याय जन्म से किया है , इसलिये स्वाध्याय लेकर आया हूँ : आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी

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भैया ! ये अपना परम पुण्य स्वीकारना चाहिये , मैं तो अहो भाग्य मानता हूँ कि ऐसे योगी से मैं दीक्षित हुआ , जिस योगी ने मेरे से कभी ये नहीं कहा कि आप को मेरे अनुसार चलना पड़ेगा । बस , उन्होंने तो मेरे से ये ही कहा कि आगम को छोड़कर मत चलना ।
आज तक आचार्य विराग सागर जी ने ये नहीं कहा कि तुम मेरे पंथ आम्नाय से चलना । वो आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज के शिष्य हैं । आचार्य विमलसागरजी महाराज के मैंने दर्शन किये हैं । जिस गंधोदक को अपन अँगुली से मस्तक पर लगाते हैं , वो महाराज गंधोदक को सबके सिर पर फेंक देते थे । तब भी उन्होंने ये कभी नहीं कहा – कि तुम विशुद्ध सागर गधोदक फेंकना । उन्होंने कहा – भैया ! इसको मस्तिष्क पर धारण करना
इस बात का मैं अन्दर में गद्गद् भाव लेता हूँ कि कभी मेरे गुरु ने ये नहीं कहा कि यहाँ की परम्परा को तोड़ना , वहाँ की परम्परा को बढ़ाना । कुछ नहीं ।
मैंने तो निवेदन कर लिया था महाराज ! मैं भगोड़ा बनकर आपके पास नहीं आया हूँ , वैरागी बनकर आया हूँ । स्वाध्याय जन्म से किया है , इसलिये स्वाध्याय लेकर आया हूँ । मुझे मालूम है कि वस्तुस्वरूप क्या है ? आप मुझे जैनेश्वरी दीक्षा दो । लेकिन मैं किसी पंथ में उलझने बाला नही हु
:- आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज