व्यवहार शिष्ट-मिष्ट और इष्ट हो तो प्रतिष्ठा कल्पवृक्ष के समान मनवांछित परिणाम देती है

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1986

प्रतिध्वनि ध्वनि का अनुसरण करती है और ठीक उसी के अनुरूप होती है। दूसरों से हमें वही मिलता है और वैसा ही मिलता है जैसा हम उनको देते हैं। अवश्य ही वह बीज-फल न्याय के अनुसार कई गुना बढ़कर मिलताहै। नववर्ष में संकल्पित हों कि -सुख चाहते हैं, दूसरों को सुख दें। मान चाहिए, सब को मान प्रदान करें। हित चाहते हैं तो हित करें। मीठी और हितभरी वाणी दूसरों को आनंद, शान्ति और प्रेम का दान करती है और स्वयं आनंद, शान्ति और प्रेम को खींचकर बुलाती है।
महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी से किसी विशिष्ट विद्वान् ने कहा: “आप मुझे सौ गाली देकर देखिये, मुझे गुस्सा नहीं आएगा। महामना ने जो उत्तर दिया वह उनकी महानता को प्रकट करता है। वह बोले- “आपके क्रोध की परीक्षा तो बाद में होगी, मेरा मुँह तो पहले ही गन्दा हो जाएगा।”
हम अपने व्यवहार से ही वंदनीय और निंदनीय बनते हैं। हमारे व्यक्तित्व का मूल्य धन से नहीं हमारे व्यवहार की मधुरता या कुटिलता से आंका जाता है। मधुर वाणी एक प्रकार का वशीकरण है। फिर मधुर वचन बोलने में दरिद्रता कैसी? वाणी की मधुरता से सहज ही सभी को मित्र और कर्कश वाणी से दुश्मन बनाया जा सकता है। तत्वचिंतक गेटे का कहना है-व्यवहार वो दर्पण है जिसमें व्यक्ति के अंतस्तल का प्रतिबिंब झलकता है।
व्यक्ति का व्यवहार शिष्ट-मिष्ट और इष्ट हो तो उसकी प्रतिष्ठा कल्पवृक्ष के समान मनवांछित परिणाम देती है। हमारे व्यवहार की झलक अंतरंग और बाहर दोनों जीवन को उजागर करती है। चेहरे का रूप रंग और आकार प्रकार सुंदर मिलना अपने हाथ में नहीं है। किंतु जीवन को मधुर और कोमलता से जीना तो हम पर ही निर्भर करता है। वर्तमान में मधुरता का स्थान दिखावे ने ले लिया है। बाहरी खुश-मिजाजी और भीतरी कुटिलता ने मधुरता को धुंधला बना दिया है। अगर हमने किसी के प्रति कड़वे वचन बोले हैं या हम कड़वे बनते हैं तो धीरे-धीरे वह कड़वाहट हमें स्वयं ही धोनी पड़ती है। घृणा और तिरस्कार उस पालतू कबूतर के समान हैं जो लौट कर अपने मालिक के घर ही आते हैं।
हम अपने अंतर में झांक कर देखें कि हमारे व्यवहार में और अंतरंग जीवन में कहीं भेद-रेखा तो नहीं है। हमारी छवि में कहीं कोई छलावा तो नहीं है। मीठी मुस्कान में कहीं बनावट तो नहीं छिपी हुई। परस्पर मेल मिलाप और हमारी मित्रता कहीं स्वार्थ-परक तो नहीं है। एक बार जब हम अपने अंतःकरण को टटोल कर देख लेंगे कि हम बाहर से जितना अच्छा दिखते हैं उससे दुगना भीतर से अच्छे हैं तब निश्चित रूप से हमारा प्रतिष्ठा का अलंकार सदैव सुरक्षित रहेगा। पेड़ की जड़े अगर खोखली हों तो उसकी ऊपर की हरियाली जल्दी ही समाप्त हो जाती है। उसी तरह अगर हमारे अंदर मधुरता नहीं है तो हमारी बाहर की मधुरिमता का आडंबर भी कुछ अंतराल में धुंधला पड़ जाएगा। इसलिए नुमायशी मुखौटा उतारना जरूरी है।
जैन विचारधारा के अनुसार मधुरिम व्यवहार की असल कसौटी है सबके सुख व दुःख को अपने समान समझ कर उनका समुचित आदर सम्मान करना। दूसरों का सम्मान करना अपने को ही सम्मान देना है। क्योंकि संसार में जो हम देते हैं वही लौटकर हमारे पास आता है। इसी कारण मानवीय जीवन में रंग-रूप सत्ता, धन या पद से भी अधिक कीमती मधुर व्यवहार है। शरीर रूपी दीपक में चाहे रिद्धि-समृद्धि की तेल बाती मौजूद हो। किंतु जब तक उसमें माधुर्य की लौ ना दिपे तब तक प्रतिष्ठा का प्रकाश अपनी उजास से जीवन को जगमगा नहीं सकता। जीवन के आकाश में जैसे ही मधुरता का सूरज उदीयमान होता है प्रतिष्ठा के अनगिनत कमल स्वत: ही खिलने उठते हैं।
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन