तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ जी: कर्मों का खेल कैसे खेल खिलाता है, मात्र आहार देने से तीर्थंकर, देखने से मोक्ष राह दिखाता है

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13 मार्च 2023/ चैत्र कृष्ण षष्ठी/चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी/
चैत्र कृष्ण नवमी, हां यही वह दिन है जब प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभनाथ जी का अयोध्या की तत्कालीन महारानी मरुदेवी के गर्भ से जन्म हुआ था। कर्मभूमि पर असि मसि आदि द्वारा जीवन यापन की शिक्षा देने वाले आप ही थे। सबसे ज्यादा 84 लाख वर्ष की आयु, सबसे ज्यादा कद 3000 फुट, सबसे ज्यादा तप 1000 वर्ष आदि के साथ इस हुण्डावसर्पिणी काल में आप चतुर्थकाल की बजाय तीसरे काल में ही जन्म लेकर मोक्ष को प्राप्त हुये। आपन ेसबसे अधिक 63 लाख पूर्व वर्ष तक राज किया। आपकी दो रानियां व तीर्थंकर परम्परा से हटकर दो पुत्रिया भी थीं। राजसभा में एक दिन अप्सरा नीलांजना का नृत्य करते आयु पूर्ण होता देख वैराग्य की भावना बलवती हुई। आपके दो पुत्र आपसे पहले मोक्ष गये और आपका एक पोता (मरीचि) आगे जाकर 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी बने।

कर्मों का खेल कैसे खेल खिलाता है,
मात्र आहार देने से तीर्थंकर,
देखने से मोक्ष राह दिखाता है
यह शक्ति, प्रेम, धर्म की ऐसी अनोखी सत्यकथा है, जिसके सामने चलचित्र पर दिखती हजारों फिल्में फीकी पड़ जाती हैं। आज उसी का संक्षिप्त रूप बताते हैं।

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव होंगे, यह दस भव पहले ही पता चल जाता है, यह उस जीव यानि उस भव में महाराजा महाबल नहीं, बल्कि उनके मंत्री स्वयंबुद्ध को पता चलता है। जब स्वयंबुद्ध ने अकृत्रिम सौमनस वन के चैत्यालय में चारण ऋद्धिधारी मुनियों से पूछा कि मेरा मालिक ‘महाबल’ जो भोगोपभोग में सदा लिप्त रहता है, वह भव्य जीव भी है या नहीं?

महाबल दसवें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम तीर्थंकर
तब चारण ऋद्धिधारी आदित्यगति मुनिराज अवधिज्ञान से मंत्री स्वयंबुद्ध को बताते हैं कि तुम्हारा महाराजा भव्य है और अगले 10वें भव में भरत क्षेत्र का प्रथम तीर्थंकर होगा। फिर मुनिराज उसको महाबल के पूर्व भवों के बारे में जानकारी देते हैं।

महाबल के दो स्वप्नों का राज
उधर राजमहल में महाबल ने दो स्वप्न देखें, उस पर मुनिराज ने स्वयंबुद्ध को बताया कि आज वह तुमसे उन दो स्वप्नों का फल पूछेगा, जिनका यह फल है। तब यह बतलाते हुए कहना कि आपकी आयु सिर्फ एक माह रह गई है। फिर उस अल्पायु को जानकर महाबल ने 8 दिन अष्टाह्निका पर्व मनाया और फिर पुत्र का राज्याभिषेक कर विजयार्ध सिद्धकूट पर 22 दिन की सल्लेखना धारण कर समाधिमरण किया और पुण्य फलस्वरूप ऐशान स्वर्ग में ललितांग नाम के महार्द्धिक देव हुए।

देव का देवी से भव-भव का मिलान
ललितांग देव 7 हाथ ऊंचे शरीर का धारी स्वर्ग मनुष्य से अनंत गुणा सुख भोगता और स्वयंप्रभा सहित चार देवियां थीं। स्वयंप्रभा और ललितांग में प्रेम सीमाओं के पार था। 6 माह आयु शेष रही तो उसे देवी से छूटने का वियोग होने लगा। काफी समझाने पर अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करते-करते चैत्य वृक्ष के नीचे महामंत्र का जाप करते स्वर्गायु पूर्ण की।

देव-देवी का विदेह क्षेत्र में नमन व पाने की व्याकुलता
पूर्व विदेह के पुष्कलावती देश के उत्पलखेट नगर में राजा वज्रबाहु और महारानी वसुंधरा के ललितांग देव का वज्रसंघ नाम के पुत्र के रूप में हुआ। वहीं स्वयंप्रभा देवी का जन्म पुण्डरीकिणी के राजा वज्रदंत – रानी लक्ष्मी मती के श्रीमती पुत्री के रूप में हुआ।

देव को ही पति के रूप में पाने की व्याकुलता

एक दिन श्रीमती ने गुरु के केवल्य महोत्सव को जाते आकाश में देवों को देखा, बस फिर उसे पूर्व भव का स्मरण हो गया। व्याकुल हो गई ललितांग देव को पाने के लिये, छटपटा गई। कैसे पहचाने उसे, पण्डिताधाय को पूर्वभव का एक चित्र बनाकर दिया। जो इस चित्र का अर्थ बता देगा वो ही मेरे पूर्व भव का ललितांग देव होंगे, जाओ और तलाश करो। खाना-पीना सब कुछ, सुध-बुध भूल गई।

उसके पिता को चक्ररत्न की प्राप्ति और दादाजी को कैवल्य की प्राप्ति एक साथ हुई। वहीं पण्डिता धाय उस चित्र को मंदिर के बाहर बिछा कर बैठ गई। विवाह तो उस अनुपम सुन्दरी श्रीमती से हर कोई करना चाहता था, पर चित्र क्या है? यह कोई नहीं बता पाता था।

चित्र देखकर प्रेम में पागल हो मूर्च्छित
मंदिर दर्शन करने एक दिन वज्रसंघ आया, चित्र पर नजर पड़ी, देखते ही जाति स्मरण और स्वयंप्रभा देवी के वियोग में मूर्च्छित हो जाता है। होश में लाने पर वह एक सांस में चित्र का वर्णन कर देते हैं। अब पण्डिता धाय सुनकर पगलाती श्रीमती के पास पहुंचती है, वह तो खुशी में पागल हो जाती है। दोनों विवाह के बाद मंदिर जाते हैं, जहां 32 हजार राजा उनका अभिनंदन करते है।

दोनों के पिता द्वारा दीक्षा
इधर वज्रसंघ के पिता राजा वज्रबाहु शरद ऋतु के बादलों को विलीन देखकर वैराग्य लेते हैं, श्रीमती के सभी पुत्रों यानि अपने पोतों व 500 राजाओं के साथ। उधर, श्रीमती के पिता चक्रवर्ती वज्रदंत, धाय पण्डिता व अनेक राजा दीक्षा ले लेते हैं, छोटे से बालक का राजतिलक होने से मां पुण्डरीक को अल्पव्यस्क जान बेटी-दामाद के पास राज्य संभालने के लिये दूतों के माध्यम से पत्र भेजती है।

सभी बेटे बने चारणऋद्धिधारी मुनि, दिया आहार
वज्रसंघ पत्नी श्रीमती के साथ जाते हैं कि रास्ते में वन से गुजरते सरोवर के पास ठहरते हैं, वहां दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज दमधर व सागरसेन आ रहे थे। दोनों की केवलवन मेें आहार लेने की प्रतिज्ञा थी। श्रीमती – वज्रसंघ तत्काल वहां पड़गाहन कर आहार देते हैं, देवों द्वारा पंचाश्चर्य प्रकट होते हैं।
वृद्ध कंचुकी तब दोनों को बताती है कि ये दोनों मुनिराज आपके ही अंतिम युगल पुत्र हैं। दोनों आश्चर्य से हर्षित हो जाते हैं। कैसा है कर्मों का खेल, बेटे बने मुनिराज, माता-पिता उनकी चरण धूलि को पा आनंदित होते हैं।

अतीत व भविष्य भवों का वर्णन, 8वें भव में निर्वाण
तब दमधर मुनिराज ने ललितांग समय उनके साथ रहे देव, अब इस भव में मतिवा आपके मंत्री, अंकपन सेनापति, आनंद पुरोहित, धनमित्र सेठ हैं। और जो तिर्यंच इस आहार को देख रहे हैं, उनमें क्रोध के कारण सिंह, मान के कारण सूकर, माया के कारण वानर और लोभ से नकुल बना, चारों अप्रत्याख्यानावरण कषाय से तिर्यंच बने। पर अब ये चारों सदा आपके साथ 8 भव उत्पन्न होंगे और जब 8वें भव में वज्रसंघ तीर्थंकर होंगे, ये भी आठों निर्वाण प्राप्त करेंगे। श्रीमती जी, हस्तिनापुर के राजकुमार श्रेयांस बनकर आपको प्रथम आहार देकर दान तीर्थ का प्रवर्तन करेगी। देखिये कर्मों का खेल और लगता नहीं कि रिश्ते स्वर्ग में बनते हैं।

कैसी भूल और आकस्मिक मृत्यु
वज्रसंघ और श्रीमती भोगोपभोग के बीच एक दिन शयन कर रहे थे, सुगन्धित द्रव्य की सुगंधि पूरे शयनकक्ष में फैल रही थी, द्वारपाल भूल से उस दिन भवन के गवाक्ष खोलना भूल गये, जिससे सांस रुक जाने से दोनों की आकस्मिक मृत्यु हो गई और फिर विदेह क्षेत्र के उत्तर कुरु में आर्य-आर्या हुए। चारों शार्दूल, नकुल, वानर व सूकर भी पात्र दान की अनुमोदना से वे भी, वहीं उत्पन्न हुए, जबकि मतिवर आदि चारों दीक्षा धारण कर अधोग्रैवेयक में उत्पन्न हुए।

तब एक दिन वज्रसंघ-श्रीमती को सूर्य प्रभदेव गगननामी को देख जाति स्मरण होने पर, तभी दो चारण ऋद्धिधारी मुनि वहां पहुंचते हैं, वे और कोई नहीं, महाबल के समय उनकी भव्यता पूछने वाला पूर्व भव का स्वयंबुद्ध मंत्री था। ये है पुण्यकर्मों का फल। वहीं उनके शेष तीन मंत्री जो अन्य के प्रति कपट, दुख देते थे, दो निगोद और एक नरक में पहुंचे। नरक में पहुंचे शतमलि मंत्री को धर्म उद्बोधन देने श्रीधर देव गये। वहां आयु पूर्ण कर वज्रसंघ ऐशान स्वर्ग के श्रीप्रभ विमान से श्रीधर देव, तथा श्रीमती आदि भी उसी स्वर्ग में विभिन्न देव हुए।

स्वर्ग में बने रिश्ते जारी रहे व
पात्र दान की अनुमोदना की

श्रीधर देव स्वर्ग में आयु पूर्ण कर विदेह के महावत्सकावती देश के सुसीना नगर में राजकुमार ‘सुविधि’ पुत्र के रूप में जन्मता है, और श्रीमती का जीव देवायु के बाद उनके केशवपुत्र के जन्म लेती है। सब आगे चलकर दीक्षा लेते हैं, पर सुविधि पुत्र के स्नेहवश दीक्षा ने लेकर घर में ही बैरागी के रूप में रहता है और अंत समय में दीक्षा समाधि से 16वें अच्युतेन्द्र हुआ। वहीं केशव भी अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र तथा अन्य भी यथायोग्य देव हुए। देवायु पूर्ण कर वज्रसंघ का जीव पूर्व विदेह के पुण्डरीक नगरी के महाराजा वज्रसेन-श्रीकांता के वज्रनाभि पुत्र हुआ और केशव (श्रीमती का जीव) उसी नगर में वैश्य दम्पत्ति के धनदेव नामक पुत्र होता है।

देव-देवी, पिता-पुत्र के बाद यह था
चक्रवर्ती-नवरत्न का रिश्ता

वज्रनाभि चक्रवर्ती बनते हैं और केशव का जीव धनदेव उनके गृहपति नाम का रत्न होते हैं। वज्रनाभि फिर पुत्र को राजपाट सौंप धनदेव सहित अनेक राजाओं, पुत्रों, भाइयों के साथ दीक्षा ग्रहण कर सोलह भावनाओं को चिंतवन कर तीर्थंकर बंध कर, तपश्चरण प्रभाव से अनेक ऋद्धियां प्राप्त कर लेते हैं। आयु के अंत में समाधिमरण से सर्वाथसिद्धि विमान में उत्पन्न होते हैं और केशव भी उत्तम देवायु पाते हैं।

देव बना तीर्थंकर और 9 भव पूर्व की
उनकी देवी बनती हैं प्रथम आहार प्रदाता

नौ भव पहले का देव ललितांग और उनकी देवी स्वयंप्रभा अब उस बने रिश्ते को अनूठे रूप में आगे बढ़ाते हैं। अन्तिम कुलकर नाभिराज-मरुदेवी के गर्भ से जन्म होता है ललितांग देव के जीव के रूप में और बनते हैं ऋषभदेव, वहीं स्वयंप्रभा का हस्तिनापुर के महाराज सोमप्रभ के छोटे भाई श्रेयांस के रूप में जन्म होता है।

वह जीव जो दस भव पहले महाराजा होकर भोगोपभोग में इतना लिप्त रहता है कि उसके भव्य होने की भी शंका होने से उसी का मंत्री चारण ऋद्धिधारी मुनिराज से जिज्ञासा रखता है, वहीं उसे सद्बुद्धि के चक्षु खोलता है, देवायु में अपनी देवी के प्रेम में पागल होता है, चक्रवर्ती होने पर अपने पुत्र के मोह में रहकर सबके दीक्षा लेने के बावजूद वैराग्य नहीं ग्रहण कर पाता। पर मुनिराजों को आहार तथा अन्य रूप संयम – तप – त्याग से 10वें भव में प्रथम तीर्थंकर बनता है, वही स्वर्ग में मिली देवी 8 भव बाद उन्हीं को महामुनिराज के रूप में प्रथम आहार देकर दान तीर्थ का प्रवर्तन करती है।

ऋषभदेव स्वामी की यह दस भव की कथा यही संदेश देते हैं कि अब तक जो बुरा – पाप – अनर्थ किया, उसे अब तो छोड़ दें – त्याग दें और बढ़ जायें अच्छे कार्यों की ओर, कषायों को मंद करें, निर्मल भावों से तप-त्याग-आहार-विहार करायें, तब ही हम उस राह पर चल सकेंगे, जिस राह पर जंगल में मुनिराज का आहार देखते चार तिर्यंच चले थे। वर्ना महाबल के अन्य तीन मंत्रियों की तरह नरक में गिरने या तिर्यंच गति से कोई नहीं रोक सकता। ये कर्मों का खेल वहां ले जाये, तो पश्चाताप नहीं करना।
कौन-सा रास्ता चुनना है, यह स्वयं करना। वर्तमान में बताते तो शास्त्र भी हैं और मुनिराज भी, पर चलना तो हम स्वयं को ही पड़ेगा।