संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी – स्वर्णिमसंस्मरण – निर्भयता- मुनि श्री क्षमासागर जी महाराज

0
1603

बुन्देलखंड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था। एक दिन रात्रि के अँधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया और उसने एक बहिन को काट लिया। पंडित जगन्मोहनलाल जी वहीं थे। उन्होंने उस बहिन की पीड़ा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछाकर लिटा दूँ, सो जैसे ही बिस्तर खोला उसमें से एक सर्प निकल आया। उसे जैसे-तैसे भगाया गया।
दूसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाई और कहा कि महाराज! यहाँ तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी। पंडित जी की बात सुनकर आचार्य महाराज हँसने लगे। बड़ी उन्मुक्त हँसी होती है महाराज की। हँसकर बोले कि-‘पंडित जी, यहाँ हमारे समीप भी कल दो-तीन सर्प खेल रहे थे। यह तो जंगल है। जीव-जन्तु तो जंगल में ही रहते हैं। इससे चातुर्मास में क्या बाधा ? वास्तव में, हमें जंगल में ही रहना चाहिए और सदा परीषह सहन करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्म-निर्जरा परीषह-जय से ही होती है।’ उपसर्ग और परीषह को जीतने के लिए इतनी निर्भयता व तत्परता ही साधुता की सच्ची निशानी है।
कुण्डलपुर(१९७६)