5 जनवरी 2022/ पौष शुक्ल चतुर्दशी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी /- शरद जैन –
अनंत सिद्धों, 24 तीर्थंकरों, करोड़ों देवी-देवताओं की जन्म-कर्म स्थली पर जब धर्म की रक्षा के लिए वर्तमान में धर्म ध्वजा संवाहकों को ही जब आहुति देनी पड़े, तो लगता है कि हम, किसी धर्म प्रधान देश नहीं, नास्तिकों की नगरी की बात कर रहे हैं।
आज पूरा विश्व हतप्रभ है कि दुनिया के सबसे बड़े धर्म प्रधान देश में धर्म के आयतनों को जूते-चप्पलों से रौंदा जा रहा है, अहिंसा-शाकाहार के दिलों में मांस-मदिरा, धूम्रपान का पोषण हो रहा है। हां, उसी देश में जहां राजनेता भगवान श्री राम के मंदिर को बनाने में अपनी छाती को ठोंकते हैं, वहीं दूसरे मंदिरों में जूते-चप्पल से रौंदते आंखें मूंद लेते हैं।
पिछले काफी समय से अहिंसक समाज आंदोलित है, कलैंडर बदलने के साथ, नये वर्ष की पहली किरण से सब्र का बांध भी टूटने लगा। अब तक घरों में बैठा ‘जैन’ सैलाब बनकर सड़कों पर उतर आया और कुंभकर्णी नींद, सो रही सत्ता तो नहीं जग पाई, पर अभी तक हां, लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले ‘मीडिया’ ने जरूर करवट ली।
सैकड़ों जगह आंदोलन, पर राज्य और केन्द्र इस मामले पर जैसे फुटबाल खेलने में लगे हैं। हमने नहीं, उन्होंने किया – दोनों तरफ से एक ही आवाज।
हां 2019 में दोनों ओर से चोट हुई। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इको सेंसेटिव जोन तो बना दिया केन्द्र ने, पर उसमें इको टूरिज्म की पूंछ जोड़ दी, वहीं झारखंड सरकार ने राजकीय गजट जारी कर पारसनाथ मधुबन को अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन क्षेत्र घोषित कर दिया। आज सरकारें सबसे पवित्रतम अहिंसक शाकाहारी जैन तीर्थ को भी कमाई का धंधा बनाने से नहीं चूक रही। उन्हें शायद इससे कोई मतलब नहीं कि इससे क्षेत्र की पवित्रता खण्ड-खण्ड हो रही है। शायद सरकारों ने जैन समाज को अहिंसक समझ कर, हल्के में लेने की आदत-सी बना ली है। अगर ऐसी ही घटना किसी अन्य सम्प्रदाय के धार्मिक आयतन में हुई होती, तो अब तक उन्होंने पूरे देश में जलजला दिखा दिया होता, तोड़फोड़ होती, सरकारी सम्पत्तियां जलती, हड़तालें होती। पर जैन समाज ने हमेशा सरकार के साथ चलने की ही कोशिश की है, आवाज उठाने की नहीं और शायद आज जैन समाज उसी का खामियाजा भुगत रहा है।
यही नहीं, नये वर्ष के तीसरे दिन, अभी सूरज ने किरणें भी नहीं फैलाई थी कि गुलाबी नगरी के सांगानेर में एक सूर्य की सदा के लिये विदाई हो गई। बलिदान दे दिया, शिखरजी की पावनता के लिए। तप-त्याग की कठिन तपस्या करने वाले दिगंबर संत, जिनके हाथ सदा सबको आशीर्वाद के लिये उठते हैं, आज वे ही उठ गये, सदा के लिए हमारे बीच से।
क्या इसे हत्या नहीं कहा जाये? क्या इसकी आरोपी हमारी सरकारें नहीं? उन्हें ना अफसोस है, न चिंता तीर्थक्षेत्र की पवित्रता की। कितनी आहुतियां चाहिये, अपनी कुंभकर्णी नींद से जगने के लिए? अगर सरकारें अब भी नहीं चेती तो पूरे देश में आंदोलन दूसरा रूप ले लेगा। नहीं-नहीं, कोई तोड़फोड़ नहीं करेंगे, नहीं सरकारी सम्पत्तियों को नुकसान होगा, बल्कि बच्चा – बच्चा अनशन करेगा। अगर सरकार को जागने के लिये लाशों की गिनती ही करनी है, तो जैन समाज उसके लिये तैयार है। बस सरकार गिनती बता दे, कि उसको कितनी आहुतियां इस यज्ञ में चाहियें।