कमंडलु के पानी और पिच्छी से आशीर्वाद का कमाल – संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी – स्वर्णिम संस्मरण

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तेन्दूखेड़ा के चातुर्मास सन् 2004 की बात है। वहाँ पर मेरे पास एक छोटा सा बालक लाया गया। जो सिर्फ पन्द्रह दिन का था। उसको जन्म के समय से बीमारी थी कि वह माँ का या किसी का दूध नहीं पीता था। न वह रोता था। न लघुशंका, न दीर्घशंका करता था। डाक्टर ने कहा- यह तुम्हारा बेटा मेहमान जैसा है। इसकी अब जितनी सेवा करना हो, कर लो। यह बचेगा नहीं। उसकी दादी उसे मेरे पास लेकर आई। बेटे के बारे में अपनी व्यथा-कथा बतायी। बड़ी मुश्किल से हुआ आदि बातें की। मेरे पास उसको लिटा दिया। डाक्टर ने जो कहा था, सुनाने लगीं। मुझे बेटे को देखकर करुणा हो आई। मैंने कहा- वह कुछ पीता नहीं है ? बोली- हाँ, नहीं पीता। पास में कमण्डलु था, मैंने अंगूठे में पानी भरकर उसके मुँह में डालना शुरू किया, वह बहुत ही जल्दी-जल्दी पीने लग गया। एक दो पिच्छी उसके ऊपर दे दी, वह रोने लगा। घर जाकर मलमूत्र भी कर लिया। वह बच्चा जो नहीं करता था, सब करने लग गया। मैं जानती थी कि आर्यिकावेश में बालक के मुख में पानी आदि नहीं डालना चाहिये। मूलाचार की बातें थीं। लेकिन उस बालक को देखकर मुझे डतनी करुणा आयी कि वह सब ध्यान ही नहीं रहा। बालक की विशेषता थी वह मेरे अंगूठे से गिरी पानी की बूंद पीता था। ऐसा मैंने सात-आठ दिन तक किया। बाद में विहार करना था। कर लिया,गुरु आदेश जो था।
कुण्डलपुर में बड़े बाबा का मस्तकाभिषेक होना था, तब मैं पहुँची, आचार्य श्री से प्रायश्चित लिया। उसमें यह भी बात बतायी कि आचार्य श्री मैं यह जानती थी कि इस प्रकार आर्यिका को क्रिया नहीं करना चाहिये लेकिन मैंने ऐसा किया इसका प्रायश्चित दीजिये।
आचार्य श्री पहले तो सुनकर मुस्कुराते रहे, बाद में गम्भीर मुद्रा में बोले- ऐसा करना नहीं चाहिये। अब कर लिया, लेकिन आइंदा से ऐसा नहीं करना। नहीं तो फिर भीड़ लग जायेगी। मैंने कहा- समस्या ही ऐसी आ गई थी। आचार्य श्री बोले- समस्या आती है, तभी तो करना पड़ता है। लेकिन यह ठीक नहीं माना जाता है। ऐसा कहा। लेकिन प्रायश्चित कुछ भी नहीं दिया। मैंने इसे बाद में गहराई से चिन्तन किया, कि अगर शिष्य-शिष्याओं पर गुरु रोक न लगायें और ऐसा करने पर प्रोत्साहन देने लग जायें तो वह अपना कर्तव्यभूलकर इस प्रकार के कार्य में लग जायेंगे। उनकी रुचि फिर मन्त्र, तन्त्र, सीखने में भी होने लग जायेगी। ऐसा कहना उचित था। लेकिन जब बाद में, मैंने उस बालक को बड़े रूप में देखा तो खुश हो गई कि उसको जीवनदान मिल गया। जीवन पाने में शायद मेरा निमित्त रहा हो।
–आर्यिका प्रशांत मति माता जी