ये पंचमकाल है , यहाँ ईर्ष्या के काँचों से पूरी रोड़ भरी पड़ी है , अपने पैर बचाके निकल चलो : आचार्य रत्न विशुद्ध सागर

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आचार्य रत्न विशुद्ध सागर जी महाराज ने प्रवचन मे कहा-
ज्ञानी ! गुलाब का फूल होता है , उसमें भी कांटे होते हैं । ये क्यों हो गया ऐसा ?
ज्ञानी ! जो धर्मात्मा था , दिगम्बर बन गये , देश प्रतिमाधारी भी बन गये , तब भी उसके अन्दर ईर्ष्या नहीं गई , तो फूल तो बना , परन्तु काँटेवाला बना
भैया ! सम्हलके रहना । इधर अब हमसे न कहना । ‘ जो है , सो है । ‘ इसलिये इतना ध्यान रखना कि कोई क्या कर रहा है , इसमें नहीं जाना । हमारे परिणाम कैसे अच्छे रह सकते हैं ?
अभी तो पाण्डव कह रहे थे कि तेरा सो तेरा मेरा सो मेरा । और दुर्योधन कह रहा था कि तेरा सो मेरा , और मेरा सो मेरा बस , समझ लो कि यही तो ईर्ष्या है ।
चार भैया थे । पिता ने हिस्सा दे दिया तब भी अपने हिस्सा को नहीं देखता , भैया के हिस्से पर दृष्टि जा रही है । शुद्ध बैल है । बैल को कितना ही घास डाल दो , पर वह बगल की ओर मुँह जरूर मारेगा । बस , समझ लो कि अपनी सम्पत्ति होने पर भी दूसरे की सम्पत्ति को देखता जाये , वह शुद्ध बैल है ।
वह पर्याय का मनुष्य है परिणामों का बैल है और भविष्य की पर्याय भी बैल है । बुरा न मानना , भैया ! ‘ जो है सो है । ‘
अभी हम जा रहे थे रास्ते में , तो वहाँ काँच पड़ा था , तो एक भी लड़के ने कांच नहीं बीना , सब देख – देखके निकल गये । भैया ! काँच नहीं बीनना अपने पाँव बचाकर निकल जाना । ये पंचमकाल है , यहाँ ईर्ष्या के काँचों से पूरी रोड़ भरी पड़ी है । अपने पैर बचाके निकल चलो । ओम शान्ति ।