गधे को गहने पहनाने से आनंद नहीं मिलने वाला; बिना तपे स्वर्ण की योग्यता नहीं, बिना दिगम्बरत्व देह की पूज्यता नहीं- आचार्य श्री विद्यासागर

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12 अक्टूबर 2022/ कार्तिक कृष्णा तृतीया /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
॰ पाषाण के नहीं, स्वर्ण के बनते हैं आभरण
॰ दिगम्बरत्व से रहित, नमस्कार योग्य नहीं
॰ प्राण प्रतिष्ठा, दिगम्बरत्व, तप बिना, स्वर्ण नहीं, पाषाण है

सान्ध्य महालक्ष्मी टीम सोमवार 10 अक्टूबर को सायं अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ (शिरपुर) पर गुरुवर संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महामुनिराज व ऐलक श्री सिद्धांत सागरजी से शिरपुर केस पर ताजा घटनाक्रम के लिये दर्शन कर चर्चा की। आचार्य श्री से शिरपुर केस के बारे में जब चर्चा की बात हुई तो उन्होंने ‘आशीर्वाद’ दिया और मुस्कुरा दिये। आचार्य श्री की मुस्कुराहट ने संकेत दे दिया था कि उनके कल प्रवचन इसी दिशा में हो सकते हैं। ऐलक श्री सिद्धांत सागरजी से भी इस विषय में 3-4 घंटे चर्चा हुई, पर अभी कलम उत्सुक है आचार्य श्री के प्रवचन की, कि वो क्या गहरा अर्थ बताने जाने वाले हैं।

मंगलवार 11 अक्टूबर को ठीक प्रात: 9.04 पर आचार्य श्री मंचासीन हुये। दो सूचनायें, फिर पूजन, शास्त्र भेंट और 9.13 पर उनके श्रीमुख से वही चिरपरिचित अंदाज में आचार्य श्री ने कहा कि कनक पाषाण भी एक पुदगल है। उसमें स्वर्ण और पाषाण दोनों हैं। आप स्वर्ण का आभरण बनाना चाहते हैं। पर स्वर्ण की यात्रा कठिन और बहुत दूर है, पर यह असंभव नहीं, परिश्रम से पूर्णता होती है।


आचार्य श्री का यह गहरे अर्थ वाला प्रवचन चैनल महालक्ष्मी के अंदाज में इस लिंक पर देखिए

आप गले में स्वर्ण के हार पहनने को तो उत्सुक रहते हो, पर उस कनक पाषाण को नहीं पहनते। पाषाण दो किलो का, उसमें दो-चार छेद करके एक-एक किलो का क्या गले में या कान में टांगते हुये किसी को देखा? स्वर्ण को निकालते हैं, तपाते हैं, यह काम आपका नहीं, जौहरी का होता है। सुनार कनक पाषाण को घिसकर उसमें उभरी रेखाओं को पहचान कर स्वर्ण को पहचानता है। जब तक उस पाषाण में परीक्षा के बाद स्वर्ण-पाषाण से अलग नहीं होता, तब तक उत्साहित नहीं होते, उसे नहीं पहनते।

फिर आचार्य श्री ने अनोखी मुस्कराहट के साथ कहा कि पर आप लोग शत-प्रतिशत पक्के हो गये हो, जो आभरण तो चाहते हैं, स्वर्ण चाहते हैं, पर कनक पाषाण नहीं पहनना चाहते।

इस उदाहरण को देते हुए आचार्य श्री ने उस मूल गहराई को लोगों तक पहुंचाते हुए आगे कहा कि ठीक उसी तरह, जो सम्यग्दृष्टि लोग, जो दिगम्बरत्व से रहित हैं, वो नमस्कार के योग्य नहीं है। यह ज्यादा सोचने की बात नहीं। सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्र होने पर ही स्वर्ण है। स्वर्णता की पहचान पूर्णत: पर ही है। अगर गधे को आभरण पहना दो, तो वह चमक तो समझ सकता है, पर आपकी तरह आनंदित नहीं हो सकता।

अनंत तीर्थंकर हैं भविष्य में, पर आज नहीं है। आज और अब का महत्व है, तप का महत्व है। आप उस कनक पाषाण को खरीद-बेच तो सकते हो, पर वह कभी स्वर्ण की तरह कभी स्वीकार्य नहीं होगा। जब तक लक्षणों के साथ, पाषाण की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होती, तब तक आपकी गर्दन झुक नहीं सकती। गर्दन हर जगह नहीं झुकती है।

शब्दों को पिरोते हुए आचार्य श्री ने बहुत गहरी बात सरलता से अपने अंदाज में कहा कि स्वर्ण की प्रतीक्षा करते रहने से स्वर्ण कभी नहीं निकलने वाला। उसे तपाना ही होगा और तपते-तपते, ही स्वर्ण ऊपर आएगा। उसी तरह परमात्मा आता है। लक्षण ग्रहण करके ही स्वीकार करना, तभी नमस्कार करना।

मात्र 13 मिनट में आचार्य श्री ने दिगम्बरत्व की पुन: पहचान करा दी, परमेष्ठी की पूज्यता बता दी। 02 अक्टूबर के शंखनाद पर सान्ध्य महालक्ष्मी को आगे बढ़ने का ‘आशीर्वाद’ भी तो मिल गया था।