जैनधर्म में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की लम्बी परम्परा है।तीर्थकरों की गौरवशाली परम्परा में बनारस नगरी में जन्में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व सम्पूर्ण देश में अत्यन्त लोकप्रिय जननायक, कष्ट विनाशक आदि रूपों में व्याप्त और प्रभावक रहा है।
धर्म-तीर्थ के कर्ता (प्रवर्तक) तीर्थंकर कहे जाते हैं।इन्हें जिन, जिनेन्द्रदेव, अर्हत्, अरिहन्त,अरहन्त, वीतरागी, सर्वज्ञ आदि अनेक विशेषणों से सम्बोधित किया जाता है। मन, वाणी और शरीर द्वारा जितेन्द्रिय बनकर जिन्होंने संसार में भ्रमण कराने वाले कर्म रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की है, वे जिन कहे जाते हैं और इनके द्वारा प्रतिपादित धर्म जैनधर्म कहलाता है।
वर्तमान में जैन परम्परा का जो प्राचीन साहित्य उपलब्ध है, उसका सीधा सम्बन्ध चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर से है। किन्तु इनसे पूर्व नौवीं शती ईसा पूर्व काशी में जन्मे तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ जो कि इस श्रमण परम्परा के एक महान् पुरस्कर्ता थे, उस विषयक कोई व्यवस्थित रूप में साहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है किन्तु अनेक प्राचीन ऐतिहासिक प्रामाणिक स्रोतों से ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में मान्य हैं। उनके आदर्शपूर्ण जीवन और धर्म-दर्शन की लोक-व्यापी छवि आज भो सम्पूर्ण भारत तथा इसके सीमावर्ती क्षेत्रों और देशों में विविध रूपों में दिखलाई देती है।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म पौष कृष्णा एकादशी को हुआ था वाराणसी के भेलूपुर स्थान में स्थित विशाल जैन मंदिर आपकी जन्मभूमि के रूप में प्रसिध्द है। तत्कालीन काशी नरेश महाराजा विश्वसेन आपके पिता एवं महारानी वामादेवी आपकी माता थीं।
अर्धमागधी प्राकृत साहित्य में उन्हें ‘पुरुसादाणीय’ अर्थात् लोकनायक श्रेष्ठपुरुष जैसे अति लोकप्रिय व्यक्तित्व के लिए प्रयुक्त अनेक सम्मानपूर्ण विशेषणों का उल्लेख मिलता है। वैदिक और बौद्ध धर्मों तथा अहिंसा एवं आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति पर इनके चिन्तन और प्रभाव की अमिट गहरी छाप आज भी विद्यमान है। वैदिक जैन और बौद्ध साहित्य में इनके उल्लेख तथा यहाँ उल्लिखित, व्रात्य, पणि और नाग आदि जातियाँ स्पष्टतः पार्श्वनाथ की अनुयायी थीं।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा उनके लोकव्यापी चिन्तन ने लम्बे समय तक धार्मिक,सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्र को प्रभावित किया है। उनका धर्म व्यवहार की दृष्टि से सहज था। धार्मिक क्षेत्रों में उस समय पुत्रैषणा, वित्तैषणा, लोकैषणा आदि के लिए हिंसामूलक यज्ञ तथा अज्ञानमूलक तप का काफी प्रभाव था। किन्तु उन्होंने पूर्वोक्त क्षेत्रों में विहार करके अहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उसका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा और अनेक आर्य तथा अनार्य जातियाँ उनके धर्म में दीक्षित हो गईं।
हमारे देश के हजारों नये और प्राचीन जैन मंदिरों में सर्वाधिक तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियों की उपलब्धता भी उनके प्रति गहरा आकर्षण, गहन आस्था और लोक व्यापक प्रभाव का ही परिणाम है।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथ का ऐसा लोकव्यापी प्रभावक व्यक्तित्व एवं चिंतन था कि कोई भी एक बार इनके या इनकी परम्परा के परिपार्श्व में आने पर उनका प्रबल अनुयायी बन जाता था।
आपने पूरे देश के विभिन्न क्षेत्रों विशेषकर पिछड़े क्षेत्रों में विहार ( भ्रमण) करते हुए सच्चे ज्ञान और सदाचार का प्रचार करते रहे और जीवन के अंत में श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन झारखंड स्थित सुप्रसिद्ध शाश्वत जैन तीर्थ श्री संवेदशिखर के स्वर्णभद्रकूट नामक पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया। इन्हीं की स्मृति में इस तीर्थ क्षेत्र के समीपस्थ स्टेशन का नाम पारसनाथ प्रसिद्ध है। सम्पूर्ण देश के लाखों जैन धर्मानुयायी इस तीर्थ के दर्शन-पूजन हेतु निरंतर आते रहते हैं।
-डॉ. इन्दु जैन राष्ट्र गौरव, दिल्ली