3 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल छठ /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
नौ भव पूर्व पहले, मरुभूति – फिर वज्रघोष हाथी -उसके बाद शशीर देव- से अग्निवेग के बाद 16 वें स्वर्ग में, फिर चक्रवर्ती वज्रनाभि और उसके बाद मध्यम ग्रेवेयक में अहमिन्द्र से महामण्डलीक आनंद कुमार के बाद आनत स्वर्ग में देव बने पिछले भव में।
दसवां भव
20 सागर की देवायु पूर्ण कर भारत की तीर्थराज नगरी काशी के महाराजा विश्वसेन की महारानी वामादेवी के गर्भ से जन्म लेते हैं, जन्म से 15 माह पूर्व से ही लगातार रत्नों की वर्षा होती रही। उधर कमठ त्रस-स्थावर में, नरक में कष्ट भोगता रहा पर कभी शुभ क्रिया करने से महीपाल नगर का महीपाल राजा हुआ हां वही था, वामादेवी का पिता या पार्श्व बालक का नाना। बच्चे बहुत चंचल होते हैं, पर पार्श्व बालक तो अवधिज्ञानी, हर छोटा बड़ा उनके मुख का देखकर ही हर्षित हो जाता, बस जिस दिन देखा वो दिन बहुत अच्छा रहेगा।
एक दिन उनके नाना महीपाल, यानि 9 भव पूर्व का कमठ का जीव, जिसकी पटरानी यानि बालक पार्श्व की नानी का आयु कर्म पूरा होने से मरण हुआ तो महाबल को बहुत दु:ख हुआ। उसने जटाये बढ़ा ली और तापसी बन गया, शरीर पर राख लगा ली, हिरण की खाल, मृगछाल भी ले ली। बस रमता योगी की भांति इधर-उधर घूमता रहता, घूमते-घूमते पहुंच गया काशी के उद्यान में, उधर पार्श्व बालक देवों के साथ, क्रीड़ा करने के लिये हाथी पर सवार हो उसी उद्यान में पहुंचे, दृश्य देखकर ठिठक गये। देखा एक तापसी पंचाग्नि तप के लिये लकड़ी चीर रहा। उधर महाबल ने देखा, मेरा ही नाती, मुझे प्रणाम नहीं करता, और बड़बड़ाते कुल्हाड़ी उठाई और एक लकड़ी को चीरने के लिये, जैसे ही प्रहार करने को हुआ। ‘हे तापसी, इस को मत चीरों, अपने तप के लिए जीव हिंसा क्यों करते हो, इसमें नाग युगल का जोड़ा है, मार से उसकी हत्या का पाप क्यों करते हो।’पार्श्व बालक की यह आवाज उसके कानों में गूंज गई।
नाना तापसी तो पहले ही भड़का हुआ था, हे नन्हें बालक तू कौन सा ब्रह्मा, विष्णु, महेश जैसा बन रहा है, जो मुझे ज्ञान दे रहा है। देख मैं चीरकर दिखाता हूं। कुछ नहीं और अगले ही क्षण कुल्हाड़ी का वार और लकड़ी दो फाड़ चीरी, लकड़ी में तड़पते नाग युगल दिखे। पार्श्व बालक ने कहा – हे तापस, बिना ज्ञान के काय क्लेश, करुणा आपमें रंचमात्र नहीं।
अभी वो कुछ आगे कहते, नाना बरस पड़ा-अरे मूर्ख, तू घमंड में मेरी विनय नहीं करता, मेरी आज्ञा का खंडन करता है, पंचाग्नि तप उलटे खड़े होकर, शरीर को जलाके करता है। सूखे पत्तों का पारणा करता हूं, भूखे प्यासे रहते तप करता हूं ,और तू मुझे ज्ञानहीन कहता है। पर पार्श्व बालक उनक ो हित मित प्रिय उदबोधन देते रहे, तड़पते नाग युगल भी सुनते रहे। घायल शरीर पर, वे शब्द मरहम का काम कर रहे थे, ऐसे शुभ भाव से प्राण छोड़ने से वे तत्काल स्वर्ग में नागेन्द्र बने, नाम धरणेन्द्र-पदमावती, अधोलोक के शासक नागेन्द्र।
उधर महाबल नाना, आर्र्द्र-रौद्र तप से देव तो बना कल्पवासी नहीं, ज्योतिषी सवंर देव, धरा से 800 योजन ऊपर जम्बूद्वीप का चक्कर लगाता।
इधर पार्श्व प्रभु सुखों का आनंद लेते, भोगते 30 वर्ष की आयु पूरी हो गई थी, तब एक दिन अयोध्या के राजा जयसेन ने अपने दूत के हाथों भेटें भेजी। दूत आपके दर्शन से ही इतना आंनदित हो गया, भेटें, वस्तुएं रख स्तुति की और ऋषभदेव का चारित्र वणर््िात किया। वैसे वचन सुनकर आपमें वैराग्य की भावना बलवती हो गई। उधर ब्रह्मलोक से लौकान्तिक देवों ने उदबोधन दिया। मोक्षरूपी वधु को धारण करने के लिये चल दिये पालकी पर। सात कदम पहले राजा पालकी लेकर चले, फिर 7 कदम विद्याधर, उसके बाद देवों को सौभाग्य मिला। धन्य हो गये, वो जिन्होंने भगवान की पालकी को उठाया। अश्ववन में पंचमुष्टि केशलोंच कर, ध्यान में लीन और तत्काल चौथा मन:पर्यय ज्ञान की प्राप्ति।
गुलर खेटपुर के राजा ब्रह्मदत्त ने खीर से पारणा कराई और प्रकट हो गये पंचाश्चर्य।