सूर्य को ज्योतिष देव माना जाता है तो उसे को नमस्कार करने, पानी चढ़ाने की परिपाटी कैसे चल पड़ी ?

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2 अगस्त 2022/ श्रावण शुक्ल पंचमी /चैनल महालक्ष्मी और सांध्य महालक्ष्मी
वही 8वें भव में मरुभूति का जीव आनंद कुमार राजा को एक बार मुनिराज ने तीनों लोको के 8,56,97,481 अकृत्रिम जिन मंदिरों का विवरण मध्य लोक के 458 उर्ध्व लोक के 84,97,023, अधोलोक के 7,72,00,00 जिन मंदिर और साथ ही सूर्य विमान की महिमा बताई वहां हर समय रत्नमयी प्रतिमायें जगमगाती रहती है कि करोड़ो सूर्य की रश्मियां भी फीकी हो जाती है, उनकी रचना अनुपम हैं, सूर्य देव भी उन प्रतिमाओं को तीनों सुबह, दोपहर, शाम नमस्कार करते हैं। जिन बिम्ब की महिमा और उस पर सूर्य विमान की चकाचौंध करती, सूर्य रश्मियों को फीका करती रत्नमयी प्रतिमाओं पर उस आनंद कुमार महामण्डलीक ने सुबह सवेरे महल की छत पर चढ़कर सूर्य की ओर मुख कर अर्घ समर्पित करता। उसने मणियों से जड़ा अदभुत शोभा वाला सोने का सूर्य विमान बनवाया, जिन मंदिर ऐसा जैसे उसी रत्नमयी प्रतिमा को धरा पर ले आये।

राजा प्रतिदिन पूजा पाठ करता, दीन दुखी को दान देता, यह परम्परा आज लुप्त हो गई है कि पूजापाठ करें तो गरीब भाईयों की सहायता करें, उसमें भी उतना ही पुण्य मिलता है जितना पूजा से। राजा करे, तो प्रजा क्यों न करे, सारी प्रजा भी सूर्य की तरफ नमस्कार करने लगी, राजा के अर्घ के समान लोटे से पानी चढ़ने लगा, सूर्य पूजक सभी बन गये, पर रत्नमयी प्रमिमाओं की बजाय सूर्य को नमस्कार करने पानी चढ़ाने की परिपाटी चल पड़ी। है भी जैसा महापुरुष करते हैं, वैसा संसार भी करता है, जैसे एक फैशनेवल चर्चित अभिनेता की शूटिंग में मारपीट के सीन करते कई जगह से जींस फटी दिखाई, बस शॉट के बाद वो, उसी तरह घर को चल पड़ा, रास्ते में लोगों ने देखा और फटी जींस का फैशन चल पड़ा।
बस आंनद कुमार का जीवन यूही गुजरता रहा और एक दिन उसने सिर में एक सफेद बाल देख चिंतन करने लगा।

भोगों से उदास हो गया, संसार अस्थिर और असार है। मृत्यु दिवस का कोई नियम नहीं। बस फिर बारह भावनाओं का चिंतन कर अपने आत्महित विचार किया। कई राजाओं के साथ दीक्षा ले, आनंदकुमार मुनिराज वन में विचरण करने लगे। आंनद कुमार मुनिराज सोलह कारण भावना भाते हैं। यह पुण्य उत्पन्न करने वाली है, संसार से पार कराने वाली है। इसी को भाते, उन्होंने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। तप के द्वारा कषायों को क्षीण किया, राग-द्वेष दूर, कई ऋद्धियों को प्राप्त, बस एक ही चाह मानो शेष, मोक्ष।

क्षीर नामक वन में अचल पर्वत समान तप में लीन, कि फिर वही कमठ का जीव जो नरक में तड़पने के बाद इसी वन में सिंह बना, पूर्व का बैर फिर जग उठा (मत बांधो गांठ बैर की भाई, जन्मों जन्मों बड़ा दुख दाई) कंठ से मुनिराज को पकड़ चीरने लगा, खंड-खंड करने लगा, पर वो क्षमामूर्ति बिना द्वेष, क्रोध के मानो प्राणों के जाते आत्मा में मग्न हो चुकी थी। पहुंच गये आनत नामक स्वर्ग में। आनत स्वर्ग में दिन-रात का भेद नहीं, कामधेनुु, कल्पवृक्ष ,चिंतामणि रत्न, कोई मौसम परिवर्तन नहीं, सदा आनंदित, गुणों का भण्डार, एक मुर्हूत (48 मिनट) में काय की पूर्ण रचना, जैसे सोता युवा कुमार उठा है। अवधिज्ञान से पूर्व जन्म के तप आदि को जान लिया, बस उसी को आगे रखते, नंदीश्वर द्वीप तीनों बार जाना, पंचकल्याणकों में तीर्थों को नमस्कार, बीस सागर पूर्ण आनंदमयी जीवन व्यतीत करने लगे।