समयसार की वांचना का अधिकार निर्ग्रन्थ को ही है,तीर्थंकंरों की वाणी जो कि गणधर परमेष्टी ने सुनी एवं श्रुत केवलिओं के माध्यम से आई है,जिसे पूर्वाचार्यों ने समझा है, वही वाणी जिनवाणी है। उपरोक्त उदगार मुनि श्री समतासागर जी महाराज ने आचार्य कुंदकुंद स्वामी द्वारा लिखित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा किये गये पद्धानुवाद “समयसार” ग्रन्थ की वांचना करते हुये श्री शांतिनाथ जिनालय स्टेशन मंदिर में प्रातःकालीन प्रवचन सभा में व्यक्त किये।
उन्होंने कहा कि समयसार का अनुभव वही कर सकता है, जो समयसार को जानता हो अर्थात जिसके अंदर सम्यक्दर्शन सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूपी रत्नात्रय घुल मिल कर एक रुप हो गये हो।
उन्होंने कहा कि समय का अर्थ इस जीव से है, जो अपनी आत्मा के स्वरुप का चिंतवन कर स्व समय और पर समय को भेदरुप से जानकर तदनुरूप अपनी चर्या को करता हो।
मुनि श्री ने कहा कि यदि समयसार का अनुभव करना चाहते हो तो सवसे पहले समय यानि की आत्मा और पर समय यानि की यह शरीर जो हमारे तुम्हारे दिखने में आ रहा है, उसमें भेद करना होगा। “समयसार” का अनुभव खूब कपड़ा पहनकर वड़िया गादी पर वैठकर ओड़ आड़कर के नहीं होता। उसके लिये तो इस शरीर के राग को छोड़ना पड़ता है, तभी तो इस भीषण ठंडी में शरीर और आत्मा का भेद विज्ञान कर सकते हो।
शीतकालीन वांचना का शुभारंभ “समयसार” ग्रन्थ की वांचना के साथश्री शांतिनाथ जिनालय स्टेशन जैन मंदिर में हुआ।
-अविनाश जैन विदिशा