बीत गया, अपने समय पर अपनी मौत, हो गई 2020 की, वैसे इतिहास के पन्नों में काला धब्बा बन कर जरूर याद रहेगा। 2020 को लीलने और पूरे विश्व को इस खतरनाक संक्रमण ‘कोरोना’ ने हमें बहुत कुछ बदलने का मजबूर किया। भागमभाग दुनिया को ब्रेक लगा दिया। जैन समाज के लिये भी यह 2020 बहुत खट्टा-मीठा रहा, सान्ध्य महालक्ष्मी का एक मूल्यांकन।
- पहली बार तीर्थ-मंदिरों के कपाट हुए बंद
जो सैकड़ों वर्षों में नहीं देखा, वो हुआ, 2020 में 24 मार्च को प्रधानमंत्री की लॉकडाउन घोषणा और 25 मार्च से 21 दिनों का पहला लॉकडाउन, अघोषित कर्फ्यू और इतिहास में पहली बार सभी तीर्थ-मंदिरों के कपाट तक बंद कर दिये गये। पूजा-अभिषेक पर संभवत: पहली बार विराम लगा। संत जहां थे, वहीं ठहर गये, यहां तक कि जो भक्त जहां था, वही थम गया। ऐसा कई पीढ़ियों ने भी पहले नहीं देखा होगा।
- पहली बार, कोई संक्रमण, भक्तों से संतों तक पहुंचा, कर्इं का देवलोकगमन
कोविड-19, जिसने पूरे विश्व में हा-हाकार मचाया, उसने सब परिग्रह छोड़े, जैन संतों को भी नहीं छोड़ा। हां, यह उन तक स्वयं नहीं पहुंचा, पहुंचाने का काम भक्तों ने किया। न जाने की चेतावनी, रखें पूरी सावधानी, जैसे शब्द भी बौने पड़ गये। हम नहीं सुधरेंगे, बस यही जहन में आ जाता है। 12 के लगभग संतों का असमय देवलोकगमन हुआ, वहीं कई पूरे परिवार तक उजड़ गये भक्तों के। संतों की यह अपूर्णीय क्षति, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो पाएगी। कारण, चंद की लापरवाही, चंद की गल्तियां और नुकसान पूरे समाज का। कोरोना पाजीटव को एक धार्मिक स्थान पर सबसे बड़ी सूचना, मुम्बई और इन्दौर से मिली।
- सोशल मीडिया पर बढ़ा फैलाव, भक्तों का भी, संतों का भी
सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म-फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब और सबसे ज्यादा व्हाट्सअप पर, जहां भक्त, समितियां एक्टिव दिखने लगी और इनके साथ अनेक संत भी सोशल मीडिया पर एक्टिव हो गये। कुछ स्वयं, कुछ भक्तों के द्वारा। प्रवचन हो या शंका समाधान या समाज में अपना प्रभाव, सब कुछ सोशल मीडिया पर बहुत तेजी से बढ़ा और इसके लिये धन्यवाद देना चाहिये कोरोना को। कहते भी हैं, बुराई में भी, कुछ अच्छाई छिपी होती है।
- पहली बार बिना शोबाजी, प्रचार-प्रसार, बैंड बाजे के चातुर्मास स्थापनायें
यह किसी से छिपा नहीं है कि संतों के चातुर्मास स्थापना कार्यक्रमों में लाखों खर्च किये जाते हैं, बड़े-बड़े पण्डाल, होर्डिंग, बैनर, पोस्टर, आमंत्रण पत्रिकायें, कलशों का कारवां, खाना-पीना और भी बहुत कुछ। पर इस बार कुछ नहीं हुआ, हुई तो केवल चातुर्मास की मांगलिक क्रियायें, सादगी से, बिना किसी शोर-शराबे के। यह सब किसी व्यक्ति विशेष के कारण नहीं हुआ, बरसों से ये खर्चे, दो गुना-तिगुना बढ़ते गये, पर इस बार कोरोना ने यह कर दिखाया, दूरियां बना दी और सरलता के निकट ला दिया।
- पहली बार, दीक्षाओं से ज्यादा देवलोकगमन
विश्वास कीजिये, अगर एक फरवरी को सूरत में हुई 100 दीक्षाओं को एक तरफ रख दें, तो इस वर्ष उतनी दीक्षायें भी नहीं हुई, जितनी सूचनायें देवलोकगमन की मिली। आचार्य श्री वर्धमान सागर जी के संघ से 6 तथा आचार्य श्री सुनील सागरजी के संघ से 5 की सूचनायें मिली। संभवत: इतना दुखद काल, निकट अतीत में जैन समाज ने पहले नहीं देखा होगा। 15 नवम्बर को आ. श्री ज्ञानसागरजी तथा उसके दूसरे दिन आ. श्री निर्मल सागरजी का देवलोकगमन, पूरे समाज को जड़वत कर गया।
- सबसे बुरा समय-साधु बनाम साधु, भक्त बनाम भक्त, और मुनि निन्दक भी
यह नया नहीं है, पर इस वर्ष का काला अध्याय है, जिसके लिए कोरोना को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हम सब अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में लगे हैं। पंथवाद-संतवाद चरम पर हैं। एक साधु के दूसरे साधु के प्रति द्विअर्थी शब्दों में प्रवचन, वहीं संतों के नाम पर लड़ते भक्त तथा अपने अलपज्ञ ज्ञान को संतों की निंदा में दुरुपयोग करना। अपशब्दों पर कोई लगाम नहीं, अनुशासन जैसे शब्द ‘बेमानी’ हो गये।
- नेतृत्वहीनता – समाज की बड़ी कमजोरी
यह 2020 का देन नहीं है, पर 2020 में, इसकी बड़ी कमी महसूस हो रही है। कहीं कोई सीमा नहीं, बेलगाम है हमारा रथ, बिना ब्रेक की गाड़ी दिशाहीन सरपट भाग रही है, यह गुजरता साल इसी ओर संकेत करता है, कि जब तक एक छत, एक आवाज नहीं होगी, कभी कद्र नहीं होगी।
- शिथिलाचार को लांघता अनाचार
हमारे कई त्यागी इस बार पकड़े गये, कुछ घटनाओं को दबाया भी गया, कुछ सलाखों के पीछे भी पहुंचे। पर सुधार की आवाज किसी कोने से नहीं आई। आज पुन: श्रावकों और संतों के लिये आचार संहिता की जरूरत है, पर पहल कौन करें और कोई दूसरे की क्यों माने – यही सबसे बड़ा प्रश्नचिह्न बनकर खड़ा हो जाता है।
- राजनीति परिपेक्ष्य में गिरती लोकप्रियता
अब लोकप्रियता से ज्यादा, अनुपस्थिति कहना श्रेयस्कर होगा। लोकसभा, राज्यसभा, विधायकों में आना, तो काफी दूर की बात हो गई, चुनाव के लिये उम्मीदवार तक नहीं चुने जाते। इस वर्ष केवल श्रेयांस जैन राज्यसभा में पहुंचे। निश्चित ही जैन समाज अपनी अतीत की लोकप्रियता को खोता जा रहा है, और इसका एक बड़ा कारण है एकता का अभाव।
- बंटते समाज में एकता का शंखनाद
जब 44,51,253 (2011 की सरकारी गणना के अनुसार) जैन लोग, एक होने की बजाय पंथवाद – संतवाद – में बंटते जा रहे हैं, ऐसे में एक खुशी की, बात भी आई। आज दो संघों के दो
संत एक मंच पर बैठना ना चाहते हों, पर उपाधियां पाने की होड़ हो, ऐसे में नवम्बर के अंत में आचार्य श्री सुभद्र मुनि ने अपने आचार्य पद का त्याग कर श्रमण संघ को एक करने के उद्देश्य से आचार्य डॉ. शिवमुनि जी का नेतृत्व स्वीकार कर लिया और उपप्रवर्तक बना दिये गये। अगर यह एकता का बीज पल्लिवत हो जाये, संघ मिलने लगें, तो जैनों को बरगद की तरह विशालता मिलने में देर नहीं लगेगी। (शरद जैन)