24 नवम्बर की वह सुबह, शोक रहित कहे जाने वाले ‘अशोक नगर’ में शांतिधारा के बाद जो अशांति हुई, पंचपरमेष्ठी के जयकारे में, और अभी 18,453 वर्ष और चलने वाले इस धर्म रथ के पीछे के दो पहियों में हुई हाथापाई, सरक कर, अगले पहियों में अघोषित प्रवचन ‘युद्ध’ में परिणित कब और कैसे हो गई, यह आज जैन समाज से छिपा नहीं है।
पूजनीय, वंदनीय संतों के प्रवचनों के पीछे का सच, सभी के सामने है, पर बड़े-छोटे सभी चुप हैं। कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि हम भी संतवाद में बंटे हुए हैं। ‘शिथिलाचार’ रूपी बाण को ‘मूलाचार’ रूपी तरकश से निकालना बखूबी जानते हैं। एकजुट होकर, एक चाह और एक राह पर बढ़ते हैं, तो ऐसा प्रवचन ‘युद्ध’ कैसे शुरू हो जाता है, कहीं न कहीं इसके लिये धर्मरथ के पीछे के पहिये ही दोषी हैं।
भक्तों को प्रवचन, और नजरें कहीं, निशाना कही। इस कलम को यह अधिकार नहीं दिया कि इस ओर बढ़ सके। पर आज 1600 संत और 1000 ब्रह्मचारी-विद्वान भी गहरी चुप्पी थामे हैं, महावीर के लाल हम सब हैं। कोई गलत नहीं है, पर कोई सही भी नहीं है। हम तलवार नहीं, ढाल तो बन ही सकते हैं। जब किसी के द्वारा अनाचार-अतिचार पर, यानि शिथिलाचार की ‘लक्ष्मण रेखा’ को भी पार किया, तो जब – जब यह कलम उठी तो दो शब्दों की बौछार होती थी ‘उपगूहन’ और ‘स्थितिकरण’, पर सम्यकदृष्टि के आठ अंगों में इनके बाद आता है सातवां अंग ‘वात्सल्य’। और साथ ही ‘भाषा समिति’ की महती आवश्यकता आज ज्यादा सुहाती है। हाथ जोड़कर विनम्र अनुरोध तो किया ही जा सकता है। प्रवचन आगम से हो रहे हैं, पर शब्द बालीवुड फिल्मों की तरह द्विअर्थी हैं और आज दूसरे अर्थ को निकालना और समझना, हमारी रग-रग में रच-बस गया है।
क्या इसी तरह ‘खेवटिया’ इस संसारिक भंवर से पार कराएंगे? मौन आभूषण है, पर आवश्यकता के समय चुप्पी थाम लेना, भी सही नहीं कहा गया, बस इसीलिए सफेद कागज को रंगने का दुस्साहस किया है। हम बंट-बंट कर, टूटते जा रहे हैं। श्रमण संघ में आचार्य सुभद्र मुनिजी ने अपना पद त्याग कर ‘एकता’ की मिसाल पेश की है, तो क्या हम ‘लाइन आॅफ कन्ट्रोल’ पर भी नहीं थम सकते।
पूरे विश्व में आज हमारी पहचान ‘दिगम्बरत्व’ से है, और इस मुद्रा को देखकर ही हर कोई स्वमेव नतमस्तक हो जाता है। विनम्र अनुरोध, हम जोड़ने की बात करें, दीवार न खड़ी करें, खाई को पाटें और आज हमें महावीर स्वामी तो समझाने आने वाले नहीं, हमारी नैया के तो आप ही खेवटिया हैं, भंवर में मत डालिये, उससे निकालिये। सरकारी आंकड़ों के 44,51,253 जैनियों की यही प्रार्थना है।
– शरद जैन –