जो सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयमय मोक्षमार्ग की निरंतर साधना करते हैं , तथा समस्त आरंभ एवं परिग्रह से रहित होते हैं | पूर्ण नग्न दिगंबर मुद्रा के धारी होते हैं तथा जो ज्ञान , ध्यान और तप में लीन रहते हैं , उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं |
साधु परमेष्ठी के पर्यायवाची नाम कौन-कौन से हैं ?
श्रमण,संयत,ऋषि,महर्षि,मुनि,साधु और अनगार |
(1) श्रमण~ तपश्चरण करके अपनी आत्मा को श्रम व परिश्रम पहुंचाते हैं , इसीलिए “श्रमण” कहलाते हैं |
(2) संयत~ कषाय तथा इंद्रियों को शांत करते हैं , इसीलिए “संयत” कहलाते हैं |
(3) ऋषि~ कर्मों का तर्पण करते हैं,भगा देते हैं , व नष्ट कर देते हैं , इसीलिए “ऋषि” कहलाते हैं |
(4) महर्षि~ सप्त ऋद्धि को प्राप्त होते हैं , इसीलिए “महर्षि” कहलाते हैं |
(5) मुनि~ आत्मा अथवा अन्य पदार्थों का मनन करते हैं , इसीलिए “मुनि” कहलाते हैं |
(6) साधु~ रत्नत्रय को सिद्ध करते हैं , इसीलिए साधु कहलाते हैं |
(7) अनगार~ नियत स्थान में नहीं रहते हैं , इसीलिए “अनगार” कहलाते हैं |
साधु परमेष्ठी के कितने मूल गुण होते हैं ?
साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण होते हैं-पांच महाव्रत,पांच समिति,पांच इंद्रियों का निरोध, छह आवश्यक और सात शेष गुण|
महाव्रत किसे कहते हैं , एवं उसके कितने भेद हैं ?
हिंसादि पांचों पापों का मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों का महाव्रत है | इसके निम्न पांच भेद हैं |
(1) अहिंसा महाव्रत~ छह काय के जीवों को मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से पीड़ा नहीं पहुंचाना, सभी जीवों पर दया करना , “अहिंसा महाव्रत” है |
(2) सत्य महाव्रत~ क्रोध,लोभ,भय, हास्य के कारण सत्य वचन तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन का भी त्याग करना , “सत्य महाव्रत” है |
(3) अचौर्य महाव्रत~ वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना वस्तु को ग्रहण नहीं करना , “अचौर्य महाव्रत” है |
(4) ब्रह्मचर्य महाव्रत~ जो मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से वृद्धा, बाला, यौवन अवस्था वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी फोटो को देखकर उनको माता, पुत्री, बहन, समझ, स्त्री संबंधी अनुराग को छोड़ता है ,
वह तीनों लोकों में पूज्य “ब्रह्मचर्य महाव्रत” है |
(5) परिग्रह त्याग महाव्रत~ अंतरंग चौदह एवं बाह्य दश प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना तथा संयम , ज्ञान और शौच के उपकरणों में भी ममत्व नहीं रखना, “परिग्रह त्याग महाव्रत” है |
समिति किसे कहते हैं , एवं उसके कितने भेद हैं ?
‘सम्’अर्थात् सम्यक् ‘इति’अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं | चलने-फिरने में, बोलना-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मल-मूत्र का निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना, “समिति” है |
(1) ईर्या समिति~ प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ (छ:फुट) प्रमाण भूमि देखकर चलना यह “ईर्या समिति” है ।
अर्थात् भूमि देखकर चलने का अर्थ भूमि पर चलने वाले जीवों को बचाकर चलना |
(2) भाषा समिति~ चुगली, निंदा, आत्म प्रशंसा आदि का परित्याग करके हित, मित और प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है | जैसे- कपड़ा मीटर से नापते हैं और धान्य आदि बांट से तौलते हैं , वैसे ही नाप-तौल कर बोलना चाहिए अथवा हमारे वाक्य ज्यादा लम्बे न हों फिर भी अर्थ ठोस निकले |
(3) एषणा समिति~ 46 दोष एवं 32 अंतराय टालकर सदाचारी , उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधि पूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करना, “एषणा समिति” है |
(4) आदाननिक्षेपण समिति~ शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी, आदि उपकरणों को देखकर-शोधकर रखना और उठाना, “आदाननिक्षेपण समिति” है |
(5) उत्सर्ग समिति~ जीव रहित स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, “उत्सर्ग समिति” है |
बाल ब्रह्मचारी अशोक भैया , लिधौरा टीकमगढ़ (मध्यप्रदेश)