वैष्णव धर्म के अनुसार जैनधर्म की प्राचीनता

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वैष्णव धर्म के विभिन्न शास्त्रों एवं पुराणों के अन्वेषण से ज्ञात होता है कि जैनधर्म की प्राचीनता कितनी अधिक है- जिसे हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं:-
1. शिवपुराण में लिखा है –
अष्टषष्ठिसु तीर्थषु यात्रायां यत्फलं भवेत्।
श्री आदिनाथ देवस्य स्मरणेनापि तदभवेत्॥
अर्थ – अड़सठ (68) तीर्थों की यात्रा करने का जो फल होता है, उतना फल मात्र तीर्थंकर आदिनाथ के स्मरण करने से होता है।
2. महाभारत में कहा है –
युगे युगे महापुण्यं द्श्यते द्वारिका पुरी,
अवतीर्णो हरिर्यत्र प्रभासशशि भूषणः ।
रेवताद्री जिनो नेमिर्युगादि विंमलाचले,
ऋषीणामा श्रमादेव मुक्ति मार्गस्य कारणम् ॥
अर्थ – युग-युग में द्वारिकापुरी महाक्षेत्र है, जिसमें हरिका अवतार हुआ है। जो प्रभास क्षेत्र में चन्द्रमा की तरह शोभित है और गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ और कैलास (अष्टापद) पर्वत पर आदिनाथ हुए हैं। यह क्षेत्र ऋषियों का आश्रय होने से मुक्तिमार्ग का कारण है।
3. महाभारत में कहा है –
आरोहस्व रथं पार्थ गांढीवं करे कुरु।
निर्जिता मेदिनी मन्ये निर्ग्र्था यदि सन्मुखे ||
अर्थ – हे अर्जुन! रथ पर सवार हो और गांडीव धनुष हाथ में ले, मैं जानता हूँ कि जिसके सन्मुख दिगम्बर मुनि आ रहे हैं उसकी जीत निश्चित है।
4. ऋग्वेद में कहा है –
ॐ त्रैलोक्य प्रतिष्ठितानां चतुर्विशति तीर्थंकराणाम् ।
ऋषभादिवर्द्धमानान्तानां सिद्धानां शरणं प्रपद्ये ।
अर्थ – तीन लोक में प्रतिष्ठित आदि श्री ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर हैं। उन सिद्धों की शरण को प्राप्त होता हूँ।
5. ऋग्वेद में कहा है –
ॐ नग्नं सुधीरं दिग्वाससं, ब्रह्मगर्भ सनातनं उपैमि वीरं।
पुरुषमर्हतमादित्य वर्णं तसमः पुरस्तात् स्वाहा ||
अर्थ- मैं नग्न धीर वीर दिगम्बर ब्रह्मरूप सनातन अहत आदित्यवर्ण पुरुष की शरण को प्राप्त होता हूँ।
6. यजुर्वेद में कहा है –
ॐ नमोऽर्हन्तो ऋषभो ।
अर्थ- अर्हन्त नाम वाले पूज्य ऋषभदेव को प्रणाम हो।
7. दक्षिणामूर्ति सहस्रनाम ग्रन्थ में लिखा है –
शिव उवाच ।
जैन मार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामय:।
अर्थ- शिवजी बोले, जैन मार्ग में रति करने वाला जैनी क्रोध को जीतने वाला और रोगों को जीतने वाला है।
8. नगर पुराण में कहा है –
दशभिभोंजितैर्विप्रै: यत्फल जायते कृते ।
मुनेरहत्सुभक्तस्य तत्फल जायते कलौ।
अर्थ- सतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन देने से जो फल होता है। उतना ही फल कलियुग में अहन्त भक्त एक मुनि को भोजन देने से होता है।
9. भागवत के पाँचवें स्कन्ध के अध्याय 2 से 6 तक ऋषभदेव का कथन है। जिसका भावार्थ यह है कि चौदह मनुओं में से पहले मनु स्वयंभू के पौत्र नाभि के पुत्र ऋषभदेव हुए, जो दिगम्बर जैनधर्म के आदि प्रचारक थे। ऋग्वेद में भगवान् ऋषभदेव का 141 ऋचाओं में स्तुति परक वर्णन किया है।
ऐसे अनेक ग्रन्थों में अनेक दृष्टान्त हैं।।